Monday, July 18, 2011

कलम

कई बार किसी और के लफ़्ज़ों को सुनके या पढकर ऐसा लगता है मानो वो हमारे लिए लिखे हो | बशीर बद्र साहब ने खूब लिखा है :
मेरे कुछ शेर दब के मर गए कागज की कब्रों में,
कैसी माँ हूँ कोई बच्चा मेरा जिंदा नहीं रहता |

मैंने पिछले दिनों में जो गज़लें और नज़्म मेरे ब्लॉग पर प्रकाशित की है वो मैंने सालों पहले लिखी थी | बस दुनिया से रु - ब - रु अब करवाया है | मैं इस ग़लतफ़हमी में था के शायद मेरा ये फन कही मर गया है | पर मैं ये भूल गया था के ये फन मैंने सीखा नहीं था | यह तो मेरी रूह में बसा है | और ताउम्र मुझमें कायम रहेगा |


कलम तो रोज ही उठाते है,
मगर कभी कभी लिख पाते है 

तमाम खुशियाँ मिली है फिर भी,
ग़मों का बोझ क्यों उठाते है 

कभी कभी ही शमा जलती है,
कभी कभी ही वो घर आते है 

 मैं उनको भूलने को दूर रहूँ ,
वो रोज ख़्वाबों में आ जाते है |

देखो फिर जी उठा है आज 'शफक',
वो मेरे  क़त्ल को फिर आते है |
-शफक 

Thursday, July 14, 2011

बदलते मायने

इंसान के रिश्तों से ले कर उसके जीने के अंदाज़ को सिर्फ एक ही चीज़ तय करती है और वो है उसका नज़रिया | क्यों किसी की हम से नहीं बनती पर किसी और को वो अज़ीज़ होता है? सब नजरिया है | किसी शायर ने खूब लिखा है :
अपना अपना रास्ता है कुछ नहीं,
क्या बुरा है क्या भला है कुछ नहीं!!

इस ही एहसास को मेरी ये गज़ल बयाँ करती है | जहा मैंने रात की शमा के अलग अलग मायने बताएं है | यहाँ शमा जलती भी है, अँधेरे का सहारा भी बनती है, खुद जल कर औरों को रौशनी भी देती है और एक उम्मीद बन कर जीने की राह भी दिखाती है | 

उस अर्श पर जल्दी ही निकल आयेगा सूरज
बुझती है बुझ जाने दो वो रात की शमा

शब भर तो जली आई थी वो मेरे दिल के साथ 
दिल जलता है पर बुझ गयी वो रात की शमा 

बेशक मेरे दामन में अँधेरा सा हो गया 
ठंडक तो ज़रा पायेगी वो रात की शमा 

वो आफताब रात को ढल जायेगा 'शफक'
अँधेरा तब मिटाएगी वो रात की शमा 

-शफक 

Wednesday, July 13, 2011

बंद - ए - गम

इस जिंदगी में हम सभी कही न कही कोई न कोई समझौता करके ही जीते है | इस ही उधार की जिंदगी से कभी कभी कुछ ऐसे पल चुराने का जी करता है जहा लोग, कानून, रोक - टोक, लिहाज और बंदिशों के पिंज से निकल के हम अपने लिए जीना चाहते है | 

कुछ समय से इन लबों पर झूंठी सी कोई हंसी है,
सारे अरमान दिल के आंसू में बहाना चाहता हूँ 

याद करने को तो तुझको सौ बहाने है यहाँ पर 
भूल जाने को तुम्हे मैं एक बहाना चाहता हूँ 

कोई खंडहर की तरह बरसों से ये वीरान सा है 
तुम कभी आओ मैं अपना घर सजाना चाहता हूँ 


इस जहाँ की गन्दगी से दिल मेरा मैला हुआ है 
प्यार के दरिया में जी भर के नहाना चाहता हूँ 

एक हवेली कांच की या घास की झोंपड़ी हो 
चाहे जैसा हो यहाँ बस एक ठिकाना चाहता हूँ 

जब खुदा बसता था दिल में हर किसी इंसान के 
लौट के आये 'शफक' मैं वो ज़माना चाहता हूँ 

-शफक

Sunday, July 10, 2011

गुलज़ार साहब ने उर्दू की एक नयी विदा को जन्म दिया है: त्रिवेणी | मैं खास तौर से इस विदा का कायल हू | और मैंने भी अपना हाथ इस विदा में अजमाया है | और कुछ मीठी यादें भी जुडी है इस त्रिवेणी से| 



आग जलती ही है और बर्फ बंधी होती है
दोनों को साथ में रक्खो तो क्या होता है?
आग बुझ जातो है और बर्फ भी खुल जाती है

कोई अपना कहे तो कोई पराया समझे
कहने भर से ही कहा रिश्ते बना करते है?
जैसा बन जाए वही रिश्ता ही बन जाता है

दोस्ती प्यार से बेहतर है 'शफक' कहते है 
प्यार तो दिल को कई ज़ख्म दिए जाता है 
दोस्त के प्यार से हर ज़ख्म ही भर जाता

-शफक

Thursday, July 7, 2011

एक हबीब की ख्वाहिश

आज एक बहुत ही अच्छा एहसास हुआ | एक दोस्त, जो अमूमन मुझे बात नहीं कर पाता, ने मुझे दफ्तर में फोन किया | किसी काम से नहीं, उसने एक कविता लिखी थी और वो मुझे सुनना चाहता था | मैंने सुना और कही न कही गुलज़ार साब के अंदाज़ को पाया | वो कविता मैं आज अपने दीवान में लिख रहा हू | जी हाँ पहली बार मेरे दीवान में किसी और की रचना शिरकत कर रही है | इसका नाम है फिर :


फिर... आज सुबह बादल न थे आसमान में,

फिर भी बारिश की मुझे उम्मीद थी ,

वक्त भी ठहरा नहीं ... गुज़र रहा था ,

और... सूरज भी मुझे मानो चिढा रहा था ,

साढ़े तीन बजे तक आग से जद्दोजहद मेरी चलती रही ,

और साथ ही उम्मीद भी मेरी कम होती रही ,

चार बजे तक यकीनन उम्मीद दम तोड़ ही देती...

फिर... कुछ देर बाद राहत ने दस्तक दी ,

और वो आफ्ताब जो अब तक मुझे जला रहा था , चिढा रहा था ,

को अब्र मानो निगल ही गए थे ,

फिर मुझे एक एहसास हुआ ,

जो मेरे होंठो पर एक हल्की सी मुस्कान छोड़ गया,

"खुदा के घर देर है, अंधेर नहीं "

अखिल  जे.  एस. भारद्वाज

Wednesday, July 6, 2011

दीदार - ए - पाक

लोग कहते है की शर्म, खूबसूरती, हया और हवस सब देखने वाले की नज़रों में ही होती है | कभी - कभी किसी के दीदार भर से ही बिगड़ी तबीयत सुधर जाती है | कभी किसी को देख के लगता है मानो दुनिया के सभी गम - ओ - रंजिश नाजायज़ है | ऐसे ही एक एहसास के नाम ये गज़ल:

दीदार से तेरे यूँ धुल के साफ़ हो गए
सौ जुर्म जो किये थे सभी माफ हो गए,

अच्छे - बुरे का फर्क न मालूम था मगर
तुमने जो लफ्ज़ कह दिए इन्साफ हो गए,

लाखो परिंदों का शिकार कर चुके थे पर
बुलबुल मिली कुछ ऐसी के सैय्याद हो गए,

कहते है लोग आपने फना किया मुझे
हमको तो लग रहा है हम आबाद हो गए,

हमने जो किया क़त्ल तो सूली मिली 'शफक'
पर आपने किये तो वो अंदाज़ हो गए |

शफक